________________
४८४
जिनहर्ष प्रन्धारली तेतीसमइ समवाय मह, गणधर तिहां साखी ॥१६॥ आसी विस आसातना, बहु मरण पमाड़ह । आगलि ए सिव बारनी, दीवी कुगति दिखाड़इ ॥१७गु|| ज सुविनीत सुधातमा, आसातणा टालइ । गुरु नउ विनय करइ सदा, आगन्या प्रतिपाला ॥१८गा। दसवीकालक एहना, गुण अवगुण भासइ । विनयसमाही जोइयो, जिनहरप प्रकासइ ॥१६गु॥
इति तेत्रीस गुरु आसातना स्वाध्याय समाप्त
श्री सम्यक्त्व स्वाध्यायः लिख्यते।
, ढाल-जोधपुरीती॥ सांभलि तुं प्राणी हो, मिथ्या मति लीणउ । तुतउ ऊझड़ पड़ीयर हो, ज्ञान सुधन खीणउ ॥१॥ समकित नवि जाण्यु हो, मोहइं मुंझाणउ हो । अमें भव चक्र मांहे हो, करतउ जिम ताणउ ॥२॥ समकित धन पासइहो, निरधन किम कहिये। धन सुख एक भव नउ हो, समकित शिव लहिये ॥३॥ समकित विणि किरिया हो, लेखड़ नचि लागइ । समकित संघातइ हो, भवना दुख भागइ ॥४॥ समकित विणि श्रावक हो, वाल पसू सरिखउ । जो लोचन मोटा हो, तर पिणि अंध लखउ || ...