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श्री सम्यक्त्व स्वाध्याय
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समकित दृढ़ पायउ हो, धरम आवास तणउ । जिन धर्म रयणनी हो, पेटी एह गिणउ ॥६॥ सुध समकित कीजे हो, जिम कंचण कसीये । हियडइ ऊलसीयइ हो, जई सिवपुर वसीये ॥७॥ समकित नवि नाणउ हो, गांठई बांधीजई । सद्दहणा साची हो, समकित जाणीजे ||८|| गुरुदेव धरम नइ हो, सुध करि आदरीये । समकित धरीये हो, खोटा परिहरीये ॥६॥ गति नरग निगोदई हों, मिथ्योतई पड़ीये । तिहां काल अनंतउ हो, दुख मां आथडीये ॥१०॥ इम जाणी प्राणी हो, समकित आदरउ । जिनहरख चचन सं हो, साचउ रंग धरउ ॥११॥
अथ सम्यक्त्व सत्तरी
दूहा एको अरिहंत देव, देवन को बीजउ दुनी। सारइ सुरपति सेव, परतखि एहिज पारिखउ ॥१॥ मन माहरा मिलेह, अरिहंत सुं हित आणिनइ । वीजा काचकलेह, जगवासी करमी जसा ॥२॥
ढाल (१) ते.मुझ मिच्छामि दुक्कड । एहनी। . . सांभलि रे तुं प्राणीया, सद्गुरु उपदेशो। . मानव भव दोहिलउ लघउ, उत्तम कुल एसो ॥१सां।।