SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सम्यक्त्व स्वाध्याय ४८५ समकित दृढ़ पायउ हो, धरम आवास तणउ । जिन धर्म रयणनी हो, पेटी एह गिणउ ॥६॥ सुध समकित कीजे हो, जिम कंचण कसीये । हियडइ ऊलसीयइ हो, जई सिवपुर वसीये ॥७॥ समकित नवि नाणउ हो, गांठई बांधीजई । सद्दहणा साची हो, समकित जाणीजे ||८|| गुरुदेव धरम नइ हो, सुध करि आदरीये । समकित धरीये हो, खोटा परिहरीये ॥६॥ गति नरग निगोदई हों, मिथ्योतई पड़ीये । तिहां काल अनंतउ हो, दुख मां आथडीये ॥१०॥ इम जाणी प्राणी हो, समकित आदरउ । जिनहरख चचन सं हो, साचउ रंग धरउ ॥११॥ अथ सम्यक्त्व सत्तरी दूहा एको अरिहंत देव, देवन को बीजउ दुनी। सारइ सुरपति सेव, परतखि एहिज पारिखउ ॥१॥ मन माहरा मिलेह, अरिहंत सुं हित आणिनइ । वीजा काचकलेह, जगवासी करमी जसा ॥२॥ ढाल (१) ते.मुझ मिच्छामि दुक्कड । एहनी। . . सांभलि रे तुं प्राणीया, सद्गुरु उपदेशो। . मानव भव दोहिलउ लघउ, उत्तम कुल एसो ॥१सां।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy