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जनहर्प ग्रन्थावली
पाइ पास वेसास देई नइ, तन मन सरवस लूसइ । ' कारण विणि ए छह दिखावइ, दोस विना ए रूसइ ॥४मा। जउ आधीन थई ने रहिये, जउ गायउ गाईजइ। . तर पिणि करडू मग सारीखी, हियड़उ किमही न भीजइ ॥५म।। एहनउ जे विसवास करे नर, जे जग मांहि विगूचइ । सुख छांड़ी ने दुख ल्यइ परतखि, भव कादममई खूचई ॥६मा। मुंज सरीखा मोटा भूपति, नारी तेह नचाच्या । राज रिद्धि थी रहित करीने, घरि घरि भीख मंगाव्या ॥७म।। राय परदेशी ने विप दीधउ, सूरिकता राणी । ताड़ि प्रीति तुरत प्रीतमसुं, मन मई सरम न आणी ॥८म।। पुत्र भणी मारेवा मांडयु, चुलणी चरित्र निहालउ । नीच लाज करती नवि लाजइ, एहनी संगति टालउ ॥म।। महासतक घरि रेवती नारी, सउकी अनेरी वारइ । मतवाली मांसासी पापिणि, छल करि ते सहु मारइ ॥१०म सेठ सुदरसणनइ अभयाये, जोइ सूली दिवरायउ । पाप करती किमही न वीहे, अपयश पड़हउ बजाव्यउ।११॥ इत्यादिक अवगुणनी ओरी, चउगति मांहि भमाड़े। विरती वाघणी थी विकराली, चरित्र अनेक दिखाड़इ ॥१२म।। इम जाणीरे प्राणी एहनउ, कोई विश्वास म करिस्यउँ । नारी नहीं ए छ धुतारी, श्रवणे वचन म धरिस्यउ ॥१३म।।