________________
नारी प्रीति सज्झाय
'४७३
तुझ गायउ गाउं सदा जी, कहो करूँ एकंतः । । वयण न लोपुं ताहरउजी, हूँ कामिणि तु कंत ॥४मो।। विभचारी तुझ सारीखउ जी, कोइ नहीं संसार । एक मुकइ एक आदरे जी, तुझनइ पड़उ धिकार ॥५मो।। हूँ सुकुलीणी तुझ विना जी, न करूं अन्य भरतार । तुझ मुझ अन्तर एवड़उजी, सरसव मेरु अपार ॥६मो।। बालपणानी प्रीतड़ी जी, ताहरइ माहरे रे नाह । वार न लागी तोड़तां जी, ऊटि चल्यो देई दाह ॥७मी।। तई निसनेही परिहरी जी, पिणि हुं न रहुं जोइ । कहे जिनहरख सती परे जी, जलि बलि कोइला होइ ॥८मो।।
। इति काया जोव स्वाध्याय नोरी प्रीति सज्झाय
__राग गउडी मन भोला नारि न राचिये रे, एतउ कूड़ कपटनी खाणि । बोलइ मीठड़ी वांणी, न करे केहनी कांणि ||म।। फल किंपाक सरीखी नारी, सुन्दर अति रलीयाली । पिणि ए अंत हुवइ दुखदायक, मधु खरड़ी जिम पाली ॥१म॥ प्रीति पुरातन खिणिमा त्रोड़इ, मन मा नेह न आणे। . खिणि राचा विरचे खिणि मांहि, गुण अवगुण नवि जाणे॥२॥ बोले मीठी कोइल सरिखी, हंसती हियड़े भोली। पिणि अन्तर कडुई नींबोली, चिस वाटकड़ी घोली ॥३म।।