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जिनहर्ष ग्रंथावली निज नीति मर्यादा न मेल्हइ, मिष्ट वाणि सुहामणी । काग दीठउ हस सेवित, फल कहउ हरि तेहना। काग सरिखा हुसइ राजा, नीच कुल नी उपना |-३० हंस सरिखा सुद्ध निरमल, तास करिसइ चाकरी । ते थकी रहिसइ बीहता जन, सीह थी जिम, वाकरी । एहवा दृष्टांत राजा, पूछिया कलिजुग तणा। श्रीकृष्ण भाख्या हीयई राख्या, लोक नीच हुस्यह घणा |-३१ बहु धर्म हाणि अधर्म महिमा, नीति मारग किसइ । पूज्य पूजा नहीं थायइ, अपूज्या पूजाइसइ । धनहीण खीन दलिद्र पीड्या, लोक दुखीया थाइसइ । धरम करिसइ जन सदंभी, नारि पिण नीलज हुसइ ।-३२ लोक माहे तर्कन हुस्यइ, नवि कदाग्रह मुंकिस्यइ । जलधार अलप हुसइ महीतल, राज विग्रह अति घणा । व्यवहार माहे खोट पडिस्यइ, लोक कपटी मन तणा।--३३ पांच पांडव इस सांभलि, हीया माहे थरहऱ्या । कलि मांहि न रहइ लाज केहवी, धर्म मारग संचस्या । जिनहर्प कलि विरतंत एहवं, कृष्ण नप आगलि कह्यउ । जे धर्म करिसइ तेह तरिसइ, तिणइ परमारथ लाउ ।-३४
इति कलियुग आख्यान समाप्ता [पत्र २ दानसागर भंडार, बीकानेर प्रति नं०५४।१६२६ ]