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________________ कलियुग आख्यान ४४५, कृष्य वाणिज्य क्लेस कलिनई, द्रव्य मेलविसइ बहु । । कर सीस धरिसइ दड- करिसइ, राय संग्रहिसइ सहु। . -समी चंपक फल कहउ - प्रभु. राय पूछइ पग ग्रही । गुणवंत उत्तम महासज्जन, तेह पूजासइ नहीं।-२५ जे अधम पापी सुमति कापी, नील खल दुष्टातमा । तेह तणी पूजा लोक करिस्यइ, मानिस्यइ परमातमा । सिला दीठी वाल बांधी, पाप कलिजुग सिल सही । तिहां अलप धर्म वालाग्र प्रायई, लोक निस्तरिस्यइ लही।-२६ वृद्धि तरु फल अरथ सांभलि, कहइ चतुर्भुज नृप तणी । पिता वृक्ष समान परतिख, पुत्र फल सरिखउ गिणी । बहु अरथ अरथइ वापनइ सुत, हणइ दुख आपइ घणउ । उद्वेग उपजावइ निरंतर, फल थयउ असुहामणउ |--२७ लोक कड़ाह मइ मांस पाचइ, तेहनउ कारण किसुं । स्वज्ञातिनउ परिहार करिसइ, प्रीत करिसइ नीच सं। पर वर्ग नइ निज सीस देसइ, नीच खल सुं प्रीतड़ी। गुरुड़ न लहइ रिती पूजा, सर्प पूजा एवड़ी।--२८. सर्प सरिखउ धर्म निर्दय, तेहनइ सहु मानिसइ । धर्म उत्तम गुरुड सरिखड, तेहनइ अपमानिस्यइ । नर-जेह उत्तम गुणे सत्तम, कलह माहो मां करई । रथ धुरा मर्यादा न धारइ, मांण गइवर जिम धरह-२६. नींच कुल ना परसरीखा, प्रीति माहो मां घणी ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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