________________
४३२
जिनहर्प ग्रंथावली युंही आयौ देखिकै, पिण पाणी नहुं पीध ॥३१॥ मंत्री मन भाग्यौ भरम, खुसी भयो नाराउ ।
अरधराज दीनो त, कीनो बहुत पसाउ ॥३२॥ माली वाइक-इक दिन नृप बैठौ तखत, आइ कहै वनपोल ।
वाग विधूस रावलौ, सूअर एक बड़ाल ॥३३॥ सुणत भूप असवार हुइ, सुं मंत्री परवार । रहे वाग सहु वीटि के, करत हुस्यार हुस्यार॥३४॥ घुरक करत ही नीसस्यौ, मंत्री नृपति विचाल । तिण पूढ़ दीने तुरी, पवनवेग असराल ॥३॥ सूअर नासि गयौ कहां, भयौ त्रिसातुर राइ । वैठौ वड़ तल आई के, नृपति कहति जल पाई ॥३६।। सुंदर सुघरी वावरी, निकट तहाँ जल लेन । वीरोचन आयौ त्रिषत, जल भृत सीतल नैन ॥३७॥ गलि पाणी छागल भरी, लिखी प्रसस्त विलोक । वांचै दसकत मंत्रची, दीठौ एक सलोक ॥३८॥
अरधराज सेवक सधर, मर्म जांणि ' अरु जोइ। . 'पहिली ओह न मारिये, तो फिरि मारै सो॥३६॥ 'अक्षर कर्दम लीपि के, आयौ जिहां राजान ।
भूप कहै जलपान करि, करि आऊ असनान ॥४०॥ ‘लोयै हिलोला हंस ' ज्यं, नूतन गारि निहारि । मुख पाणी सुं मंजीया, वांचै नप अविकार ॥४१॥ .