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जिनहर्ष ग्रन्थावली छाँने सं छतरै टले नहीं आये टाणै ॥ रसलुध फिर वल रातिरै धर धापट झाौ धडै । जिनहरष सार लहिमी तिके पांनौ जिहां सेती पडै ॥८॥ नाम जासु नवखंड नगर इक दिट्ठो नयणे। अडालीड असमान बड़ा कहि सके न वयणे । । पुरवासी पायक वहसि मुहि कदे न वोले । हाथ नही हथियार सुर सच्चा सम तोले ।। नर अछै तोइ को न लखै नारि नारि सहुको कहै । जिनहरष कहै साबास सो जिको अरथ साचौ लहै ॥६॥
वरसात रा दूहा मनडौ आज उमाहियौ, देखि घटा धन घोर । सयणा साइ दे मिलू, अलजो जसा सजोर ॥१॥ मनड़ौ न रहै मांहरो, उमटि आयौ मेह । सांई साजन मेलिहौ, जसा वधंते नेह ॥२॥ आयौ पावस आजरौ, नयण झबक बीज । विरही मन माह जसा, खिण खिण आवै खीज ॥३॥ पावस रितु पापी पड़े, नदी खलकै नीर। . विरह संतावै मो जसा, वलि सज्जन वेपीर ॥४॥ घटा बांधि वरसै जसा; छांट लगे खग भाई। इण रितु सजन बाहिरी, क्यू करि रयण विहाइ ॥५॥ काली काजल सारखी, घटा मंडाणी आज |