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जिनहर्प' ग्रंथावली गहिला ज्युं गलियाह, फिरै फिकर थीयौ जसा ॥६॥ रत्तड़ियां बहि जाय, सुणतां सजन वत्तड़ी। जसा सु नावे दाइ, कत्थ अनेरी चित्त में ॥६१।। जिण सं लागौ मन्न, तिण विन खिण न रहै जसा। ताढक च्यापै तन्न, सजन दर्शन देखतां ॥२॥ कामण सयणां कीध, घट न चलै धमटेरियौ।। बाण तणी परि बींध, जोइ जसा मन माहरौ ॥६३॥ करि जसराज जतन्न, सयण मला सा संग्रहै । तो दाझेसी तन्न, मूरख मिलीयां माढुवां ॥४॥ जिणरी जोडं वाट, ते सज्जन दीसे नही। तितड़ा मांहि उचाट, सु जनम क्यं जासीजसा ॥६॥ मै कीधौ तूं मीत, जोइ लाखां मे जिसौ । पलट क्युं हिब मीत, पलट्यां शोभ न पाइयै ॥६६॥ एकरस्यौं मिलि आइ, साजन' भीडै सांइयां । थिर मो मनड़ौ थाइ, जाइ जसा दुःख जूजुआ ॥६॥ खातां न गर्म खाण, पाणी न गमै पीवता । सयणां विन समसाण, जग सगलौ दीसै जसा ॥६८॥ भुज करि वे भेलाह, मिलस्युं जदि मन मेलुआं। वाल्ही साइ वेलाह, जनम सफल गिणसुं जसा ॥६६॥ नयणे मिलसै नैण, उर सुं उर मेलिस जसा ।
१ कालाहोठ थयाह मुख निसासा नांखता।