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पनरह तिथि रा सवैया ४०५ सातिम सेजि इकेली मैं सूती सुपन्न रयन्न के आय जगाइ जोगत ही जसराज निरास अचेत भई मांगें वासिग खाई॥७॥
आठिम आज भई जसराज विराजत प्रीतम प्रेमे 'अधाई हास विलास करै निसवासर सोल शृंगार वणावै लुगाई मोह न मानत चित्त कछू हिरदा विचि धूम अगन्नि धूखाई नाह कठिन्न भयौ नहि आवत कौण सुं कूक पुकारूं रीमाई ॥८॥ मैं तैरे कारण मंदिर वार खरी नित की पिय काग उडाऊं नौम वसंत सखि मिलि खेलत हुं न धणी विण खेलण जाऊं एकर सु घरं आवो जसा तुम एकांत वेठ कर में कहिलाउ । नैणनि जौ जसराज पर पिय दे हित सीख भले समझा । आज वड़ो दिन है दसराहो रूघप्पति जैत दसु दिन पाई सीत वियोग मिट्यौ दसमी दिन रावण कुं हरि लीक लगाई बड़े बड़े राज महोछव गोठि करै सवही" जसराज सवाई हूं किण सुंगुण गोठि करू अलि नाह विदेस भयौ दुखदाई॥१०॥ दिन आयौ इग्यारसि को हरि पौढत वासिग सेज पताल महैं . व्रत लोक करै सुख संपति कारण वैण गुणी जसराज कहै परदेसन ते घर कू उमहै दिन रैन वटाऊ सुपंथ वहै
१. जाण्यो मैं नाथ पधारे २. कामणि ३ भूरत ही हग जोति घटी पल लोहू घट्यो सुख चैन न पाऊं ४ नैन तजौ ५. दसमी।