SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ जिन ग्रंथावली धरान जिके मन मांहि धरै, भण्डार तिहां धन धान भरे ||२४|| गुण नीर कमण्डल हाथ ग्रहै, वीजै कर अंकुश सत्रवहै । जपमाली झाले जाप जपै, कर हेकण मोदिक भूख कपै ॥२५॥ सेवकां सामि प्रसन्न सदा, कुमणा मन काय रहै न कदा | केन्यां चो अंत तुरंत करें, पर दीपां आण समंद पर ||२६|| वाल्हेसर सेण मिलावे वेग, उचाट मिटे मिट जाय उदेग । पछाडै सत्र करै पैमाल, नमै पग तेह सदाई निहाल ||२७|| चीवाह विषै तो थाप तठे, कहताज उपद्रव कोड़ कटै लख लाभ विनायक नाम लीयां कीरति दिसो दिस जाप कियां |२८ कलस - जाप कियां जस वास वास पूरण इधकारी । नाम लीयां नवे निध अधिक साहिव उपगारी ॥ पूरै वांछित प्रेम मने मही रावल राजा । गुण गायां गणपति तुरत तूसै दिन ताजा || सुवनीत नारि सकजा सुतन, महीयल मन चिंतत मिलै | जिनहर्ष विनायक जस जपै तो जपियां दोहग टलै ॥२६॥ इति श्री गणेशजी रो छंद सम्पूर्ण देवी जी री स्तुति दोहा पारंभ करी परमेसरी, केहर चढी सकोप । असुंर तणा दल आयनै, अडीया सन्मुख ओप ॥१॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy