SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४ जिनहर्ष प्रन्थावली पनरहसै त्रय पेखि, पाय सह तापस प्रतिबोधे पारणो, जुगतिं परमांन्न परवरीयो परिवार, प्रेम सुं लागे पाये । कर धरूं सोई केवली, किम नहीं मो केवल सिरी । जिनहरख छैह आपण जड़, विन्हे हुस्यां वरावरी ॥ २१ ॥ जगगुरु वीर जिणंद, मरण जाण्यो मन मांहे । सिद्धाये । चींतवीयो । गौतम मेल्ही गांम, सिद्धपुर आप समाचार सांभले, चित्त मांहे कैरो ही नहीं कोय, लाह विण युं हीलवीयो । मन माहि जांणीयो मांगसी, केवल हठ करि मो कन्है । जिनहरख कारिमो नेह करि, वीर समायो छेह चलि ||२२|| भलो कियो भगवंत, विटकग्यो केड़ छोड़ायो । 11 लारै मो लागमी, राडि करसि के रड़सी । बालक जिम बोलसी, काइ पालव पाकड़सी । वालीयो जीव गोतम वलि, वारू ज्ञान विमासियो । जिनहरख ज्योति जग चक्ख जिम, केवलज्ञान प्रकासीयो ||२३|| - केवल महिमा कीध, अमर सगला मिलि आया । आखै तहि उपदेश, अधिक प्रतिवोध उपाया । वसिया वरस पंचास, भोग गृहवास भोगवीया । वरस त्रीस बखांण, जुगति संयम जोगवीया । ..... ...... ...... t पड़ीया । । जिमावे | । ...
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy