SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७३ गौतम स्वामी पच्चीसी सुख करण नमो असरण सरण; अपराधी नर उधरण। : जिणहरख नमो गोतम जपै, तारि तारि तारण तरण ॥१७॥ । प्रभु पय कमल वंदाड़ि, साध चो वेष समप्पे। . . __ आतम व्रत उच्चरे, धरम धोरी थिर थप्पे । कर थापे सिर कमल, तीन पद श्रवणे तवीया । वीर सधीर, बजीर, ठोड गणधर ची ठवीया । पूर्व करे चवदह प्रगट, मोटो साध अगाध मति । जिनहरख सदा मंगलकरण, गोतम गणधर अगम गति ॥१८॥ भणां लवधि भंडार, सदा सुविनीत सनेही । . सकल जाण शासत्र, कहा मुख ओपम केही । गिणां. प्रथम गणधार, कार नह लोपे कोई । आप कन्हे अणहंत, अवर केवल अधिकाई । करजोड़ी एम गोतम कहे, हेल हुसी वैकुंठ विना । जिनहरख प्रकासो वीर जिन, केवल उपजसी कि ना ? ॥१६॥ वदै ताम. महावीर, नेह साकल नांगलीयो । ___ मो उपर तो मोह, तेण केवल नह कलीयो। * भमिस्!' हुँ भव मझि, वीर सहीनाण बतावै । असटापद आरुहै, परम पद निहचे पाये। सुप्रमाण वचन करि संचरे, चढीयो असटापद चतुर । दुय आठ च्यारि जिनहरख दस, धीर हुई नमीया ज धुर ॥२०॥ ऊतरीयो ऊमहे, खांति सुं प्रभुः दिस खड़ीया ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy