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गौतम स्वामी पच्चीसी सुख करण नमो असरण सरण; अपराधी नर उधरण। : जिणहरख नमो गोतम जपै, तारि तारि तारण तरण ॥१७॥ । प्रभु पय कमल वंदाड़ि, साध चो वेष समप्पे। . . __ आतम व्रत उच्चरे, धरम धोरी थिर थप्पे ।
कर थापे सिर कमल, तीन पद श्रवणे तवीया । वीर सधीर, बजीर, ठोड गणधर ची ठवीया । पूर्व करे चवदह प्रगट, मोटो साध अगाध मति । जिनहरख सदा मंगलकरण, गोतम गणधर अगम गति ॥१८॥
भणां लवधि भंडार, सदा सुविनीत सनेही । . सकल जाण शासत्र, कहा मुख ओपम केही । गिणां. प्रथम गणधार, कार नह लोपे कोई । आप कन्हे अणहंत, अवर केवल अधिकाई । करजोड़ी एम गोतम कहे, हेल हुसी वैकुंठ विना । जिनहरख प्रकासो वीर जिन, केवल उपजसी कि ना ? ॥१६॥
वदै ताम. महावीर, नेह साकल नांगलीयो । ___ मो उपर तो मोह, तेण केवल नह कलीयो। * भमिस्!' हुँ भव मझि, वीर सहीनाण बतावै ।
असटापद आरुहै, परम पद निहचे पाये। सुप्रमाण वचन करि संचरे, चढीयो असटापद चतुर । दुय आठ च्यारि जिनहरख दस, धीर हुई नमीया ज धुर ॥२०॥ ऊतरीयो ऊमहे, खांति सुं प्रभुः दिस खड़ीया ।