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________________ ३७०. 4 लिनहर्प प्रन्थावली जिनहरख देव जावै जटे, वातां सगले विस्तरी ॥६॥ इन्द्रभूति ऊठीयो, सींह ज्युं पूछां पटके । ... .... ......" वरस्यालु वाहला, जेम इधको ऊफणियो। लोयण कर वे लाल, हेक हाथल मुंय हणियो। वादीयां रां भंजण विड़द, जोयो मिल जठे तठे। जिनहरख गिण गिण गालीया, ओ करडू रहीयो कठे ॥७॥ ___ मैं जीत सेलवी, वडा कवि ओवट वहता । गोड तणा गंजीया, लाख वगसीसां लहता। ग्यालेरा ग्रह मेल्हि, पेस ले पाये पडीया। गुण्डवाणा गालीया, नेस गुजराती नमीया । सझीया सयल सोरठरा. माण मेवाडांचो मले। जिनहरख अगंजी गंजीया, वादी कोय उठ्यो चले ॥८॥ हाथीलो हीसल्ल, ताम गोतम गरज । घणा छात्र धूमरे, सबल आडम्बर सज्ज । केसरि देख कुरंग, तुरत जेही विधि वास । ऊगमीय आदीत, पुहवि अन्धकार पणासै । तजी प्राण माणंतू पुत्रां ससी, अंग पराक्रम त्यां अछ। जिनहरख वहस्सै बोलीयौ, नयणे मो दीठो न छै॥६॥ वमधमीयो करि क्रोध, भुवी कुण करै सरभर । हुच करतो हालीयो, प्राण काढुं कर पाधर । संख राव पंखवाव, लहे दर तिके भुयंगम ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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