________________
गौतम स्वामी पञ्चीसी
३६४ वजे देव वाजिक,अंग आदीत उजास । कर देव जयकार, पहर आठे रहै पासै। " नित आय पाय सुरपति नमै, दिलचा पालंतो दरद । 'जिनहरख रीति इण आवियौ महावीर मोटो मरद ॥३॥ समवसरण सुर रच, पुहवि योजन प्रमाणे । । मणि कंचण रूप मय, वडा मुनिराज वखाणे । कोसीसा कांगरा, जांणि रवि माल झलकै । जोया दुख सहु जाय, वीज ज्यं कांति विलकै । सुर असुर नाग नर ओलगे, गयण नीसाणे गाजीयो । तिहि बीचि सिंहासण प्रभु तठे, वीर जिणंद विराजियो ॥४॥ आवै मिली अनन्त, सहु सुरलोक थकी सुर । प्रभु पय भेटण प्रेम, एक हुँती इक आतुर। गयदल मिलै गैणांग, हयां हेखारव हुवीयां । एरापति चढि इंद्र, धोम सिहरा ज्यं धुवियो। नीसाण नगारे नीहसते, धज बंधी नेजे धजे । जिनहरख वीर जिन वांदिवा, समवसरण आवै सजे ॥॥ गहगहीयो गोतम, देव आवंता देखे । समवसरण संचरे, अधम ज्युं गेह उवेखे । चित्त ताम चींतवै, भरम मानव तो भूलै ।
पिण सुर किण साझिया, देखि ज्यांरो मन डूले। __ आइखै कोइ इन्द्रजालियो, आयो एथ आडम्बरी .