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मौन एकादशी स्तवन
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ढाल ४ ॥ गीता छदनी ॥ आव्या सुरपति सुर नर मन रली, वारह परखद प्रभु आगलि मिलि। समवसरण मां बइठा सोहइ ए, सुर नर नारी ना मनमोहइ ए॥. मोहए मन रूप देखी, मधुर सुर देसण दीयइ । . संदेह मन नो हरइ दूरइ, होयडलइ आणंदीयइ । उपसमइ वयर विरोध सहुना, त्रिजगपति अतिसय करी । मिथ्यामती ना मान गालइ, मोह सेना थरहरी ॥ २१ ।। अतिसय वर चउनीस जिणंद ना, करइ सुरासुर प्रभुनइ वंदना । त्रिण छत्र सिर धारइ देवता, चामर विजइ उज्ज्वल सोहता ॥ सोहता मरकत चरण जिनवर, मल्लि जिन महिमानिलउ । उगुणिसमउ जिनराय जगगरु, कुंभ नरपति कुलतिलउ ।। फहरइ त्रिभुवन सुजस जेहनउ, आगन्या सहु सिर धरइ । बूझवइ प्रभु भन्य प्राणी, भवसमुद्र तारइ तरइ ॥ २२ ॥ आगलि वइसइ नारी परखदा, केडइ वइसइ पुरुष तणी सदा । संघ चतुर्विध प्रभुजो थापियउ, अनुक्रमि आऊखं पूरण कीयउ । कीयउ पूरउ समित-गिरवर, मुगति नयरी पहुतला। जिहां नही जामण मरण काया, सुक्ख पाम्या अति भला। पंच कल्याणक थया इम, ऊजली, एकादशी। . मास मगसिर तणी भवीयण, मौन रहीयइ ऊलसी ॥ २३ ॥ पाँच भरत पॉच ऐरव्रत जाणीयइ, दस पंचा पंचास वखाणीया। अतीत अनागत नइ वर्तमानए, सहु मिल्या दउडसय हुइ ज्ञान ए॥