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जिनहर्ष प्रथावली जिन थया नारी एह अचरज, कपट दूरइ परिहरउ । जिनराज नी जोइ अवस्था. धर्म चोखइ चित करउ ॥ १७ ॥ दस मसवाडा माय नइ, रह्या गरभ जिणंद । मगसिर सुदि इग्यारसइं, जनम्या जिनचंद ॥ सुर सुरपति मन ऊलसइ आव्या, देव देवी आवीया। सुरगिरई लेइ स्वामि उच्छव, करइ भगतइ भावीया। बहु भाव भत्तई एक चित्त, गीत नृत्य सुहाईया। दीर्घायु इम आसीस देई, माय पासई ठावीया ॥१८॥ राय करी उच्छव धणउ, दीधउ मल्लि नाम । रूप कला गुण आगलउ, त्रिभुवन नउ सामि ।। मक्य जाइ न वेगलउ, प्रभु मोह देखी उपजह । पट द्वार मोहनघर कराव्यउ, पूतली माहे सजइ । निज पूर्व भव ना मित्र पट नृप, परणिवा सहु आवीया। प्रभु कहइ काया असुचि पुदगल, देखि स्युं ऊमाहिया ॥१६॥ प्रतिबोधी निज मित्रनइ, देइ वरसी दान । मगसिर सुदि इग्यारसइ, धारी निर्मल ध्यान । संयम लीधउ मन रसइ, नारी नर वे सय सं,
मल्लि जिन व्रत आदर्य । निति समिति समिता, गुपति गुपता, पाप मारग परिहर्यउ । सुभ' ध्यान पूरी, कर्म चूरी, मागसिर एकादसी। सित लाउ केवलन्यान निर्मल, रिद्धि पामी एरिसी ॥२०॥