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चार मंगल गीत
"प्रथम मंगल गीत
॥ ढाल ।। प्रथम मंगल मन ध्याईये, अरिगंजण अरिहंतो रे। विषय कपाय निवारीया, भयभंजण भगवंतो रे ॥१०॥ केवलज्ञान दिवाकरू, संसय तिमर गमावह रे।। वारह परपद माहे वइसिनइ, अमृत वाणि सुणावइ रे ॥२०॥ कनक सिंघासण वइसणइ, छत्र त्रय सिर सोहे रे । चामर वीजइ सुर ऊजला, भामंडल मन मोहे रे ॥३०॥ वाणी योजन गामिनी, सुणतां दुख नवि व्यापइ रे। भूख त्रिपा भय उपसमइ, अविचल सिवपद आपे रे॥४०॥ प्रभु चरणे सुर नर सदा, सेवइ कोडानकोडी रे । पहिलउ मंगल जिनहरप सं, नमीये वे कर जोड़ी रे॥५०॥
इति श्री प्रथम मंगलंगीतं ॥ द्वितीय मंगल गीत
॥ ढाल-माखीना गीतनी ॥ वीजउ मंगल मनि धरउ, सिद्धिपुरीना सिद्ध । भविक नर । आठ करम अरि क्षय करी, पामी अणंत समृद्धि ॥ १ भ० वी ।। काया माया जेहने नही, नही कोई रूप सरूप । भ० । वेद नही वेदन नही, नही चाकर नहीं भूप ।। २ भ०बी।