________________
पद संग्रह
३५१ जिणि की प्रीति परमपद लहीयइ, ताहि चरण रस पीजे ॥२०॥ छेह, न दाखइ अंतरज्यामी, साचु सइंण कहीजे । यउ जिनहरख जगत कूतारण, अउर देखि मन खीजइ ॥३०॥
(२३) निरंजन खोज
___ राग आशावरी खोजइ कहा निरंजन वोरे, तेरे ही घट में तुं जो रे ।खो० बाहिरी खोज्या कबहुँन लहीयइ, अंतर खोज्यां तुरत ही पईयइ १ खोजत-खोजत सव जग मूआ, तउही उणका काम न हुआ ।खो० ज्यं परतखि घृत में दधिवासा, पावक काठ पाषाण निवासा ॥रखो 'ढढत-ढूंढ़त जगमग मावइ, तुही उण के हाथ न आवइ । खो० तोकउ भेद होइ सु पावइ, भेद विना कछ गम न लहावे ॥३खो०॥ ज्ञानी सी जिनहरख पिछाणइ, आपही आप निरंजन जाण ॥४॥
(२४) प्रबोध
राग भैरव
- ऊठि कहा सोइ रघउ, नइंन भरी नींद रे,
काल आइ ऊभर द्वार, तोरण ज्यं वींद रेऊ। __ मोह को गहल मांझि, सोयउ बहुकाल रे,
'कछु बूझ्यु नहीं तुं तउ, होइ रह्यउ बाल रे ।।१।। बहुत खजीनउ खोयउ, अलप कइ हेतरे,
अजूं कछु गयउ नही, चेतन चेत रे, ऊ०।