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श्री जिनह ग्रन्थावली
अइसउ अउर न कोई दाता, सवही कूं हितकारी
ताके चरण सरण कर रहीयह, न भजड़ दुरगतिनारि ॥ ज०॥ परम सनेही परदुख भंजन, रंजन मन सुविचारी । मीत सोऊ जिनहरख करीज, शिव सुख कउ उपगारी ||३०||
(२१) प्रभु वीनति
राग- श्राशावरी
अवतउ अपणइ वास वसाउ, कहा प्रभु बहुत कहावउ | अ० चउरासी लख मांहि वस्युं है, बसि बसि छोरे वासा । ऊंचे नीचे महल वणाए, देखे बहुत तमासा ||१०|| दुसमण सो तउ मीत किए मई, मीत शत्रु करि जाणं । तउ सुख कसई होड़ गुसाँई, आपा पर न पिछाणे ॥ २० ॥ चोर चुगल धन लूट लीयर सब, किणि सुं करूं पुकारा । ' बोस कुवास छुराड़ कहत हुँ, इतना करि उपगारा || ३अ ० || दुख पायउ आयु तुम्ह सरणड़, ज्युं जाणउ त्युं कीजो | कहइ जिनहरख निरंजन साहिब, मो मागुं सो दोजो ||४०|| (२२) जिनेन्द्र प्रीति प्रेरणा
राग-रामगिरी
मन रे प्रीति जिणंद स कीजइ ।
अउर सुं प्रोति कीयहं दुख पईयह, ताथइ दूरि रहीजइ ॥ १० ॥ करम भरम सब दूरि विडारह, जनम मरण दुख छीजइ ।