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________________ ३४८ श्री जिनहर्ष ग्रन्धावली मोह मिथ्यात मतंगज दारुण, वारण मस्त मयंदा । अकलित कोल सवल वलधारी, उच्छेदन भव कंदा रभ०॥ देखि मनोहर मूरति प्रभु की, हरखित इंद नरिंदा। देहु चरण की सेव दया करि, लहइ जिनहरख अणंदा ॥३०॥ (१६) प्रभु शरण राग-ललित आणपिया के चरण सरण गहि, काहे कं अउर के चरण गहइ हइ । अउर के चरण गहई थई अलप मुख, प्रभुके चरण गाई मुगति लहइ हा ॥१मा०॥ विरचित अउर वेर नहीं लावत.गुण अउगुण छिन मांहि कहहहह। प्रभजी कवहन छह दिखावत.धरणी ज्यं सब भार सहइ हडरग्रा०॥ समरथ साहिब छोड़िके सूरख, रांकन की डिग कवन रहइ हइ । कहै जिनहरख हरख सुखदायक, जनम-जनम के पाप दहइ हइ॥३ग्रा।। (१७)प्रभु वीनति राग-भैरव जिनवर अब मोहि तारउ, दीन दुखी हुँदास तुम्हारउ । दीनदयाल दया करी मोसुं, इतनी अरज करूं प्रभु तोसं ॥१जि०।तारक जउ जग मांहि कहावउ, तउ मोही अपणइ पासि रहावउ ।जि० अपनी पदवी दीनी न जाई, तउ प्रभु की कैसी प्रभुताई ॥रजि० इहलोकिक सुख मेरे न चहिये, अविचल सुखदे अविचल रहिये ।जि. क्या साहिब मन मांहि विचारउ, प्रभु जिनहरख अरज अवधारउ॥३
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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