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पद संग्रह
(८) विरह
राग - मल्हार
घटा घहराइ ।
सखी री घोर प्रीतम विणि हु भई इकेली, नइणां नीर भराइ || १ स ० ॥ देखि संयोगिणि पिउ संग खेलत, सोल सिंगार बनाइ । मन की बात रही मनही मई, मनही मई अकुलाइ ॥ २स०|| धन वैयारी प्यारी प्रिउ की, रहत चरण लपटाइ | मोसी दुखणी अउर जगत में, कहत जिनहरख न काइ ॥ ३० ॥
(६) विरह
राग - मोरठ
जउ पाउं ।
अब मई नाथ कबड् पाइ धाड़ कइ जाइ लगुं तउ, उर परि हित सुं रहाउं ॥ १० ॥ चार बार मुख करूं विलोकन, छोरि कहां नहीं जाउं ।
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झालि रहुं प्रीतम के अंचरा, प्रीति सुरंग बनाउं ॥ २अ० || हुइ आधीन दीन सुं बोलुं, खिजमतिगार कहाउं । तम मन योवन सरवस दइहुं, जउ जिनहरख लहाउं ॥ २० ॥ (१०) विरह, प्रीति निषेध
राग वेलाउल
काहु सुं प्रीति न कीजड़, पल पल तन मन छीजइ । प्रतिकियां जीउ परवसि हुइहई, झुरि झुरि वृथा मरीजइ ॥ १ का० ॥