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जिनहर्प ग्रन्थावली म्हारे तो वो विन को नहीं रे, जिनजी भावे जाण म जाण ।।६।। नयण निरखिस मूरति ताहरी रे, ते दिन सफल गणीस महाराज रे। सैंमुख कर प्रभु मुख बातड़ी रे, छोडी पर निज मनची लाज रे।१० देव न दीधी मुझ ने पांखड़ी रे, उडी मिल जिणजी तुझ आयरे। मन रा मनोरथ मन मां रह्या रे, किण आगल कहुं चितलाय रे ॥११॥ तारे तो मुझ पाखे ही सरे, पण म्हारेतो तुझ विन नहीं सरंत रे । जलधर सारे मोरा बाहिरा रे, मेह विना किम मोर रहत रे ॥१२॥ चॉदो गगन सरोवर पाहुणो रे, दूर थकी पिण करे विकाश रे। जे जिहां के मन में वसैरे, तेह सदाई तेने पास रे ।।१३।। दूर थकी जाणेजो वन्दना रे, म्हारी प्रह उगमते सूर रे। महिर करी ने सेवक उपर रे, मुझ ने राखो राज हजर रे ॥१४॥ केइक प्रपंच' हो साहिब सं करे रे, करतां न आवे मन में काण रे। श्रीसीमन्धर तुम जानो सही रे, श्रीसोमगणि जिनहर्प सुजाण रे। १५
श्री सीमंधर स्वामि स्तवन
ढाल | माखीनी ॥ श्री सीमंधर सांभलउ, सेवकनी अरदास । जिणंद जी महिर धरी मुझ ऊपरई, राखउ आपणइ पास । जि० १ श्री०॥ तुम संगति थी पामीयइ, उत्तम गुण जिनराय ।जि०। चंदन संगति तरु रहइ, ते पिणि चंदण थाय | जि० २ श्री ॥
१ पड़वन