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________________ ३०४ जिनहर्प ग्रन्थावली बाध्यु महण विशेष, ऐ ओ अससेण रावउत ॥ १२ ॥ जरासेन जर जाल, मेल्हि जादव मुरछित किया । तइ दीधउ ततकाल, ऊजम अससेण रावउत ॥ १३ ॥ तुंहीज जाणइ तूझ, नर वीजउ जाणे नही । गुपत तुम्हीणउ गूझ, कुण आखइ अससेण रावउत ॥१४॥ करवा परि करतार, लाधी लीला लाड़ीलइ । पामी आथि अपार, अगणित अससेण रावउत ॥ १५ ॥ सुख पाम्यां रउ सार, सुख जउ दीजइ सेवकां । ऊगरिस्यइ आचार, इलि पुड़ अससेण रावउत ॥ १६ ॥ सुर सुरपति सुख सार, महिर करे आपे मुगति । दुनियां में दातार, तुं अधिकउ अससेण रावउत ॥ १७॥ कमठासुर करि कोप, वारद जदि वरसावीयउ । अंजणगिरि री ओप, तुं ओप्यउ अससेण रावउत ॥१८॥ वरसान्यउ जदि वारि, कमठ असुर कोपई करे। तास हुई तरवारि, अंगइ अससेण रावउत ॥ १६ ॥ कांपइ थरहर काय, दुख सांभलि दुरगति तणा! मो सरणइ महाराय, राखउ अससेण रावउत ॥ २० ॥ । जगनायक जगदीस, जगतारण तं जनमीयउ । त्यारइ पूगी जगत जगीस, अधिकी अससेण रावउत ॥२१॥ कासुं करिस्ये काल, जालिम जम करिस्ये किसं । राजन मो रखवाल, आछइ अससेण रावउत ॥२२॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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