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पाश्वनाथ स्तवन
२४७ मनवंछित मूल न आलिस्यउ, करिस्यउ मत कोई उपगार। पिणि आंखडीए अणीयाली ए, मुझ साम्हु जोवउ एक बार ।६। - स्युं कहीयइ तुमनइ वली वली, म्हारा मनना मानीता मीत। जिनहरख सकल सुख पूरवउ, तुम सुंछड् म्हारइ अविहड प्रीति।७।
पार्श्वनाथ स्तवन ढाल | कलीयउ कलाले मद पीयइ रे, काई साईना रइ साथि रे ।। एहनीमन उमाह्यउ माहरउ रे कांई, तुमनइ मिलिवा. काज रे।-, सेवक सुं लेखवी रे कांई, मुजरउ घउ. महाराज - रे ॥१॥ वामानंदा आपउ नइ रे परम आणंदा, तमनइ रे अरज करुंछ एह । हुं आतुर अलजउ घणउ रे काई, भेटण तुझ भगवन्त रे ॥ . राति दिवस रातउ रहुं रे कांई, खरी धरी मन खंति रे ॥२॥ पूरव भवनी प्रीतड़ी रे कांई, काइक छइ करतार रे । तउ लोयण लागी रह्या रे काई, देखण तुझ-दीदार रे ॥३॥ माहरइ मन तूं ही वसइ रे कांई, जिम निरधन धन नेह । कोइल आंबइ कलरव करइ रे कांई, मोरां मन जिम मेह रे ॥४॥ सेवक नइ. संभारिज्यो रे कांई, हितसं धरिज्यो हेज । करिज्यो मत तुमनइ कहुँ रे कांई, विडं मामे भाणेज रे ॥२॥ दूहन्यो छेहन दाखवइ रे कॉई, मोटा जे मतिमंत । घासंता गुण धइ घणा रे कांई, मलयागर महकंत रे॥६॥ कोडि गुन्हा कीधा हस्यइ रे काई, मंइ मरख मतिहीण । पिणि जिनहरख म विरचियो रे काई, दाखंछु थइ दीण रे ॥७॥