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' पाश्वनाथ स्तवन
२३७ राजि गरीवनीवाज कहावउ, तुम'सुं दावउ,
तिणि कहीयइ छइ तूं नइ लो ॥ १ ,म्हां ॥ तूं जाणइ छइ मननीं वातां,
नव नव भातां, नाम लई स्युं कहीयइ लो। लज्जा छोड़ी नइ जउ कहीयइ, .,
मोज न लहीयइ, तउ थाकी नइ रहीयइ लो॥२ म्हारा॥ मोटा थायइ जे उपगारी, हीयइ विचारी,
पोताना करि जाणइ लो। पूरइ पूरी सगली आशा, चित्त विमास्या,
सहु परि करुणा आणइ लो ।। ३ म्हां ।। उत्तम देखी नइ राचीजइ, सेवा कीजइ,
तउ संपति पामीजइ लो। प्राण ही तेहसुं पहुचीजइ, जउ झगड़ीजइ,
तउ ही सोह लहीजइ लो ॥ ४ म्हां ॥ ओछा ते तो प्रीति न पालइ, साम्हउ बालइ,
भव-दुख मइ रझलावइ लो। माठा देखी दूरइ टलीयइ, जउ अटकलीयइ, . .. तउ आतम सुख पावइ लो ॥ ५ म्हां ।। दुखीया ना जउ दुख्य न भंजइ, चित्त न रंजइ,
तउ ते साहिब केहा लो।