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जिनहर्ष अन्धावली सेवक जाणि सदा सुख दीजह, भवकी पीर हरउ न क्यू साहिव ।
निज तारक विरुद विचारउ जी ॥ १ मो० ॥ साच कहुं प्रभुजी तुझ आगई, तुं साहिब हुँ सेवक तोरउ । - मोरी अरज हिया मांधारट जी मो० दुख भंजउ दुखीयनकेसाहिव । धारी प्रीति सुरीति विचारी, प्रभु ईति अनीति निवारउ जी २६ नीरागी तूं देव निरंजन, निमोही तू ई बहु मोही। . मोकू नयण सुधारस ठारउ जी, मो० वामा सुत जिनहरख पयंपइ । कीजे सार विचार न कीजइ, आपणउ सेवक जाणि वधारउ जी।३ . ॥ इति श्री पार्श्वनाथ स्तवनं १७५८ वर्षे ।।
पार्श्वनाथ स्तवन
ढाल-राग माल (रूडी रे रुडी रे वारणि रामला पदमिनी रे । एहनी) सदा विराजै सांमि संखेसरो रे, परतिख पास जिणंद । त्रिभुवन माहे माहे माहिमा महमहै हो, आससेण वामा नंद ।। रूप अनूप अधिक रलीयांमणो रे, रहिये सनमुख जोइ । मोहन मुरति नइणे निरखता रे तनमन तृपति न होई ॥२॥ राति दिवस हियड़ा मा बसि रहा हो, ज्यों गौरी गलिहार। कदेन साहिब मुझनइ वीसरह हो, बल्लभ प्राण आधार ॥३॥ माहरइ तो तुम सेती प्रीतड़ी हो, अविहड़ वणी रे सुरंग । चोल मजीठ तणी परे हो, जनमन होइ विरंग ॥ ४ ॥..