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________________ २३० जिनहर्ष प्रन्यावली पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || समुद्र विजय कउ नेमकुमरजी, सखी थे तउ नाइ मनावउ नइ । भोरील्यावउ नै, सावलीया ने समझावउ नइ ॥ एहनी सहीयर टोली भांभर भोली, सुचि जल पावन थावउ । गोरी आवउ नइ, साहिबीया नइ, न्हवरावउ नइ,गोरी आवउ नइ। पहिरि पटोली सुन्दर चोली, मुख मुहुँकोसम्बन्धावउ नइ ॥१॥ मृगमद सरस कपूर अरगजउ, चन्दण कॅक घसावउ नइ । भावसु रंगई प्रभु का अंगइ, अंगीया अवल वणावउ नइ ॥२॥ जाइ जूही चंपक अरु केतकि, टोडर आणि चड़ावउ नइ । रतनजड़ित कंचण आभूषण, जिनजी नइ पहिरावत नइ ॥३॥ काने कुंडल दिनकर मंडल, सीस मुगट सोभावउ नइ ।' सोल सिंगार वणाइ सहेली, आगइ नृत्य करावौ नइ ॥४॥ वामानंदण त्रिभुवनवन्दन, भावई भावन भावउ नइ । लहउ जिनहरख हरख सं सिव सुख, हित सुं हेत लगावउ नइ ।। पार्श्वनाथ स्तवन गग | वृन्दावनी मल्हार | श्री पास जिणंद जुहारीयइ, नील कमल दल कोमल काया, देखि हरख वधारीयइ ॥१॥ प्रभु मूरति मन मोहनगारी, रिदयकमल विचि धारीयइ । जनम मरण भव-दुख-सागर मइ, आपणपउ निस्तारीयइ ॥२॥ अलख निरंजन अगम अरूपी, अजर अभेद्य विचारीयइ ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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