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________________ २२२ जिनह प्रन्थावली सरीर सकोमल होत है पींजर, नीर विना जिम सके है वेली । तरवर तन विराज रहे कुच लागत है फल दोय नवेली । भोग सवादी तजया सब आज के, छाय रह्यो पिय मन्दिर मेली । हो काती कंत पधारीया, सीधां वंछित काज । घर' दीपक उजवालीयां, गोरंगी जसराज ॥१२॥ सवैया J कार्तिक मास पधारत प्रीतम, नौबत जैत नीसांण घुराओ । पैसत पोल बंदीजन सेवत, मोती वधावत नैण वरा ॥ बंटत सीरणी नयर अनोपस, गावत मंगल गीत सराओ । हास्य विनोद करै हुं चातुर, सुन्दर हंस सं देह पूराओ || १२ || दूहो इह विधि बारह मास धन, वरने सुकवि विनोद | विवेक चतुरहि जे सुनै, पवित परम प्रमोद || १३|| ॥ इति श्री बारहमासी हा सवैया संपूरणं ॥ प्रभात-वर्णन पार्श्वनाथ स्तवन राग ललित विशाल तेरे लोयणा । जागो मेरे लाल, माता वामा कहे, मेरो जीव सुख लहै । १ मंदर, २ उजवालीयो, ३ वारे मास पूरा थया, पूगी मननी आस मनमान्या साजन मिल्या, दिन दिन अधिक उल्हास ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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