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जिनहर्ष मन्थावली
दूहो
लू वाजै दियर तपै, मास अकारो' जेठ । आंख्यां पावस ऊलस्यो ऊभी छाजां' हेठ ॥७॥
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सवैयो
दिन जेठ तपै निस वासर, ढूं पड़े इण मास अटारो । परजले वन रूख दावानल लागति, जीव अनेकको होत संहारो ॥ नीवांण न पावत नीर पंक्षिअन, सुकत गात गिरै तन सारो ॥ इण मास देसावर छांड़ि गये, खुवार कर्यो मुझ कन्त जमारो ॥७ दूहो
प्रीड मोह्यो परदेस', आयो मास असाढ़ | दुख दे" पापी हालीयो, कर गोरी सुं गाढ | सवैयो
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आसाढ़ धड़कत मेह धरा, दिस मंडत कोस नवे खंड जैसी । करें सिणगार अनूप वसुंधरा, रीझत इंद सुभोग लहेसी ॥ भरतार बिना हम केम करां, किस आगल बात कहोजीयै जैसी । आपणो अंगही आप उघाड़त, इजत देहकी दूर रहैसी ||८||
दूहा सहीयां ! श्रावण आवीयो, उमटि आयो मेह | चमकण लागी वीजली, दाझण लागी देह ॥ ६ ॥
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१ उतारो । २ ऊलरो, ३ मेड़ी, ४ परदेस मे, ५ ले, ६ गोरी सुकर,
७ ऊमट ।