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जिनहर्ष ग्रन्थावली
सबैयो असमांण ठंठार पड़े इण पोसमें, नीर जमै कूआ वावज केरा । चालीयै केम इसी रित मांहि, सू लीजीयै स्वाद छही रित कैरा। देह कुँ राखीय कुंकुंम रंगसी, दुख न दीजीय बालम मेरा। दुलंभ अवतार मनुष्य को जु, हारसी जनम सु होय खवेरा ॥२॥
दहो माह महीने सो पडै, इण रित चल बलाय' । ऊंडे पड़वै पोढ़जै, कांमण कंठ लगाय ॥३॥
सर्वयो माह अथाह जलै बन रूंख जु, चालण रित अजु नहीं आई। पड़िवे पति आय पल्यंग समारिक, पोढीयै कांमण कंठ लगाइ। पान लवंग कपूर सोपारी, सनूर वधै निज देह सवाइ । अतर कसतूरी जवादि मंगाय, सुवोस चंपेल फुलेल पहराइ ॥३॥
हो फागुण मास वसन्त रित, सुण भोगी भरतार । परदेसां री चाकरी चाले' कोण गमार ॥४॥
सर्वयो फागुण मास उलासह खेलत, फाग रमै बहु नारि की टोरी। लाल कंसाल मृदंग बजावत, ल्यावत चन्दन केसर घोरी ।।
१ बलाइ २ ऊंचा पड़वा पोढनँ ३ लगाइ, ४ जावै ।