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१६२ - जिनहर्प ग्रन्थावली मात पिता तुं मुझ वाल्हउ सगउ, तुं मानी तजरे मीत या तुं साजण तुं सयण सखाईयउ, तुझ मुं लागी रे प्रीति |या०॥ मुझनइ बल सवलउ छइ ताहरउ, अवर न कोई आधार ॥ या०॥ सोम नजरि करि जोवउ साहिवा, जिम पांमु भवपार ॥ या० ॥
कलश इम नेमि वावीसम जिणेसर, शिवादेवी नंदणो । सुखसयल दायक मुगतिनायक, जगत ताप निकंदणो ।। जसु सुजस निर्मल प्रबल त्रिभुवन, काम क्रीड़ा खंडणो। जिनहरप जुगतई भाव भगतइं, तव्यउ पापविहंडणो ॥२१॥
श्री नेमिनाथ स्तवनं ॥ ढाल ।। रामचन्द्र के बाग एहनी ॥ श्री नेमिसर स्वामी, मेरी अरज सुणउ री। तुं उपगारी देव, त्रिभुवन सुजस घणउरी ॥ १ ॥ ब्रह्मचारी विख्यात, तुझ सम कोहीरी। ' छोरी राजुल नारि, अपछर रूप ,सहीरीपी२ ।। करुणावंत कृपाल, पसूआं अभय डीहा जां प्रतिपई शशि सूर, अविचल नाम तयुरी ॥३॥ करि करुणा मुझ स्वामि, भवसायर तारजी। . . जनम मरण के दुक्ख वाल्हेसर वारउरी ॥ ४ ॥ तुम्ह चरणे माहाराज, मन चंचल मोहरी-1 : पंकज रस लयलीन, ज्यूं मधुकर सोह्यउरी ॥ ५ ॥