SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ जिनहर्ष ग्रन्थावली प्रभु शांति कारण दुक्ख वारण, जगत तारण जगधणी । जिनहरख जगगुरु जगत स्वामि, पाप तमहर दिनमणी ॥४०॥ - श्री शान्तिनाथ स्तवनं सांति जिणेसर राया हूं तो प्रहसम प्रणम् पाया हो। जिनवर सांति करौ। जालौर नयर विराजे, भेटतां भावट भाजे हो।। सांति करो प्रभु मोरा, गुण गावे श्री सिंघ तोरा हो। मूरत मोहणगारी, दीठां हरखे नर नारी हो ॥२॥ जि० दरसण सो मन भावै, दीवलां री जोत सुहावै हो। दीपै तेज दिणदा, मुख सोहे पुनम चंदा हो ॥ ३ ॥ जि. अणीयाली आंखड़ियां, जाणे कमल तणी पांखड़ियां हो। नाक सिखा दीवारी, एतौ लालच घर मनुहारी हो ॥४ाजिक जिम जिम मूरत निरखं, तिम तिम हियड़े अति हरखं हो। जाणं प्रभु पास रहीजे, निस दिन प्रति सेवा कीजे हो ॥५॥ जि० पूरो मुज मन आसा, सेवक नै दीयै दिलासा हो। जस लहिसै बड़ दागै, जिनहरख सदा गुण गावै हो ॥६॥ जि० ॥ इति शान्तिनाथ स्तवनानि ॥ श्री मल्लिनाथ स्तवनं ढाल || सौदागरनी॥ मल्लि जिणेसर वाल्हा तुं उपगारी सहुनउ छइ हितकारी लाल। तुझ मुख ऊपरि हुं तउ अहनिशि वारी लाल ॥ म ॥ तुझ दरमण मुझ : लागइ प्यारउ. .
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy