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प्रीत म करि मन माहरा, करे तो काची काइ। काचा मिणिया काच रा, जसराज भांजे जाइ ॥४५॥ धन पारेवा प्रीति, प्यारी विण न रहे पलक । ए मानवियां रीति, देखी जसा न एहडी ॥४६॥ एक पखीणी अंग, प्रीति कियां पछताइजे। दीपक देखि पतग, जल वलि राख हुवै जसा ॥४७॥ साजनिया ससार, जो कीजै तो जायने । ' नेह निवाहण हार, जसा न विरचे जीवता ॥४८॥ निगुणा सेती नेह, थिर न रहै कीधां-थकां । छीलर सर ज्यु छेह, जल जातौ दीस जसा ॥८६॥ निगुणां हन्दो नेह, ऊगत दिन छाया जिसी । सुगुणां तणौ सनेह, जसा ढलती छाहडी ॥६॥
(प्रेम पत्रिका) कवि ने विरह-वर्णन बहुत अधिक किया है। यह प्रसग बडा ही मार्मिक है। इसमें विरही के मन को विभिन्न दशाओ का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। इस प्रकार के चित्र अनेक हैं। प्रेम की पीडा का प्रकाशन
देखिए
जिण दिन सजन बीछडया, चाल्या सीख करेह । नयणे पावस ऊलस्यौ, झिरमिर नीर झरेह ॥१॥ सजण चल्या विदेसडे, ऊभा मेल्हि निरास । हियडा में ते दिन थकी, मावे नाही सास ॥२|| जीव थकी वाल्हा हता, सजनिया ससनेह ।