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आज मेरइ घरि सुरतरु ऊगड, निधि प्रगटी घरि आज अखी री। आज मनोरथ मकल फले मेरे, प्रभु देखत ही दिल हरखी री ॥२॥ ताप गए मवहि भव-भव के, दुरगति दुरमति दूरि नखी री । कहइ जिनहरख मुगति कु दाता, सिर परि ताकी आन रखी री ॥३॥
(चौवीसी, पृ० ३०)
प्रभु भक्ति
(राग वेलाउल) प्रमु पद-पकज पाय के, मन भमर लुभाणउ । सुन्दर गुण मकरन्द के, रसमइ लपटाणउ ॥१॥ राति दिवस मातउ रहइ, तिम भूख न लागइ। चरण कमल की वासना, मोह्यठ अनुरागइ ॥ २ ॥ नुमनस अउर की सुरभता, फीकी करि जाणइ । रहइ निनहरख उलासमइ, अविचल सुख माणइ ॥३॥
(पद सग्रह, पृ० ३४७ ) इन पदों से कवि के हृदय का भक्ति रस मिश्रित प्रेमतत्व टपका पडता है। असल में जिनहर्प प्रेमतत्व के गायक है और इसी के कारण कवि को इतनी अधिक लोकप्रियता मिली है। आपके प्रेममय उद्गारों को सरलता और स्वाभाविकता सहज ही हृदय पर अधिकार कर लेती है। प्रेम तत्व का ऐसा उज्ज्वल निदर्शन कम ही कवियों में मिलता है।
सर्वप्रथम कवि द्वारा किया हुआ प्रेम तत्व निरूपण द्रष्टव्य है। इसमें प्रेम की गम्भीरता एव विस्तार का प्रकाशन ध्यान देने योग्य है :