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रखा है और कही भी शिथिलता प्रकट नहीं हो पाई है। कवि की यह विशेषता और भी अधिक सराहनीय है।
__ जिनहर्ष स्वाभाविक कवि होने के साथ ही जैन मुनि थे। जैन परपराओ एक मान्यताओ के प्रति आप को परम निष्ठा थी। फलत: आपकी अनेक रचनाओ में यह भक्ति-भावना प्रवल तरगवती के रूप में प्रकट हुई है। भक्त जिनहर्प ने जैन तीर्थकरो एवं आचार्यों की विनम्र भाव से अनेकश स्तुति की है। इन स्तवन-गीतो में उनके हृदय का दृढ एव अटूट विश्वास भरा हुआ है । उदाहरण देखिए -
___अभिनन्दन गीतम्
( राग नट) मेरउ, प्रभु सेवक कुं सुखकारी। जाके दरसण वछित लहीये, सो कइसइ दीजइ छारी ॥१॥ हिरिदइ धरीयइ सेवा करीयइ, परिहरि माया मतवारी। तउ भव दुख सायर तइ तारइ, पर आतम कउ उपगारी ॥२॥ अइसउ प्रमु तजि थान भजइ जो, काच गहइ जो मणि डारी ॥ अभिनदन जिनहरख चरण गहि, खरी करी मन इकतारी ॥३॥
(चौवीसी, पृ० २१) मुनिसुव्रत भीतम्
( राग-तोडी) आज सफल दिन भयउ सखी रो॥ मुनिसुव्रत जिनवर की सूरति, मोहनगारी जउ निरखी री ॥१॥