________________
[ १२ ] आडी भूय दीधी घणी, नयण न दीस तेह ॥३॥ सावी पोवो खेलवो, कांई न गमइ मुझ । हियडा मांही रात दिन, ध्यान धरू इक तुज्झ ॥४॥ नयणां मेती प्रोतडी, कीधी घणे सनेह । देव विछोहो पाडियो, पूरी न पडी तेह ॥५॥
( दोषक छत्तीसी, पृ० ११७ ) प्रेमी की अभिलापा देखिए
भुज करि वे भेलाह, मिलस्य जदि मन मेलुआं। वाल्ही साई वेलाह, जनम सफल गिणस जसा ॥६६॥ नवणे मिलसै नैण, उर सु उर मेलिस जसा । मुख पामेस्ये सैण, माया लेस्य वारणा ॥७०॥
(प्रेम पत्रिका) माहित्य जगत् में बारहमासा एवं तिथि-क्रम वर्णन की पुरानी तथा सुपुष्ट परम्पराए हैं। इनमें ऋतु परिवर्तन एव सामाजिक जीवन से प्रभादित प्रेमी जन की मनोदशा का चित्रण किया जाता है। प्रेमतत्व के पारखी कवि जिनहर्ष ने इन साहित्यिक विधाओं का भी बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है
पिट वैसाखे हालियो, *णा सीख करेह ।
मो पूरे गोग्डी, व डब नैण भरेह ॥६॥ र बाजे दिणयर तप, माम अतारो जेठ। आंग्णं पावस उल्लचो, ऊभी मेडी हे० ॥७॥