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________________ ११२ उपदेश छत्तीसी सरल तरल मन राग दोष कौं न धन, जिनहरख कहै वीतराग जू (१) ॥ २६ ॥ अथ शुद्ध गुरू कथन सवइया ३१ गैर उपदेश हरें आराम उपदेश धेरै, विरुद्ध करै न भव जल निधि पाज है । पुन्य पाप दोनू कहें धरम को भेद लहै, परिसह सब सह कारो धन सु काज है । कृत्य अरू अकृत्य स्वरूप सब उपदिसै, ग्यान दरसण विध चरण समाज है । सुगति कुगति जिनहरख कहत पंथ, जुगवासी तारवै कु सुगुरु जिहाज हई ||२७|| ' अथ महा रूढ कथन सवइया ३१ अरे हो अग्यानी अभिमानी गुरु वांगी सुगं तू तो भव भ्रम करत नही लाज है । , के काल भये तोकू जाणे न तो बूझि मोकू श्रवण सिद्धांत सुणि कर्म दल भाज है । जागि, है सचेत चित समता समेत यहाँ लहौ मेदह जमरां नित खाज है । कहै - गुरू तो ते न धरै उर, पांणी मै पांखण जैसे किधू सरद गाजै है |२८|
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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