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उपदेश छत्तीसी
सरल तरल मन राग दोष कौं न धन, जिनहरख कहै वीतराग जू (१) ॥ २६ ॥
अथ शुद्ध गुरू कथन सवइया ३१
गैर उपदेश हरें आराम उपदेश धेरै, विरुद्ध करै न भव जल निधि पाज है ।
पुन्य पाप दोनू कहें धरम को भेद लहै, परिसह सब सह कारो धन सु काज है । कृत्य अरू अकृत्य स्वरूप सब उपदिसै, ग्यान दरसण विध चरण समाज है ।
सुगति कुगति जिनहरख कहत पंथ, जुगवासी तारवै कु सुगुरु जिहाज हई ||२७|| '
अथ महा रूढ कथन सवइया ३१ अरे हो अग्यानी अभिमानी गुरु वांगी सुगं तू तो भव भ्रम करत नही लाज है ।
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के काल भये तोकू जाणे न तो बूझि मोकू श्रवण सिद्धांत सुणि कर्म दल भाज है । जागि, है सचेत चित समता समेत यहाँ लहौ मेदह जमरां नित खाज है ।
कहै - गुरू तो ते न धरै उर, पांणी मै पांखण जैसे किधू सरद गाजै है |२८|