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जिनहर्ष-प्रन्थावली
पिंडहू ते प्यारे पूत को रहा सूत, निरखि निरखि जाको दरस सुहा है ।
जिनवर धर्म जो सी प्रीति धरै जिनहरख तुरत परम गति कु पावै है ||२४||
अथ प्रयु स्वरूप कथन सवइया ३१
जैसे अंजुरी कौ नीर कोउ है नर धीर, छिन छिन जाइ वीर राख्यौ न रहात है ।
तैसें घटि जै है उ कोटिक करो उपाउ, थिर रहै नही सही वातन की बात है ।
मैं जीव जांणि कै सुकृत करि धरि मन, समता मै रमता रहै तो नीकी घात है ।
CRONES
जोउ जोग ध्यान धरै काहू की न आस करै, श्ररज सबद जरै लागे है न दाग जू ।
थिर देही सु उपगार यौ हो सार जिनहरख सुथिर जस मौन मै लहातु है ||२५|| श्रध वीतराग स्वरूप कथन सवइया ३१
मन ममता न माया कारमी गिरौ है काया, र ग्यानामृत धाया जब सो ताग जू ।
छोय है संसार पास जाई रहै वनवास, रहत सदा उदास अजब सोभाग जू ।
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