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जिनहर्ष ग्रन्थावली यौ तो है कठिन अंग तिछन जैसो निषंग, अंग अंग सालि संग दुकृत को खंध रे ।
तू तो परिग्रह छोरि रहै तो अखंड तैरे,
कह जिनहरख समझि सब बंध रे ॥१५॥
अथ रात्रिभोजन वर्जित कयन सवइया ३१ रैण चोर वहै वाट सव रोकि रहै घाट, रैण पसू अन्न गल बंध न बंधाइयै ।
पितर न झेलै पिंड कालिमा अखंड दंड,
दान सील तप भाव धर्म न पाईयै । मृतक न जारीयत भुइ मै न गारीयत, सतीय न काठ गहै पूजा न रचाईयै ।
अन मांस सम वरि लोहूं जल एक एक, रैण जिनहरख भोजन कैसे खाईयइ ॥१६॥
अथ दान महिमा कथन सवइया ३१ देहु दांन सीख मांन दोन तें अचल थान, राव रांणा छ है दांन ग्यानी दान देहु रे ।
सवा भार कंचन करण दीधो लीधो जस,
दांन तै विक्रम भयो सुजस को गेह रे । भोज मुज विद्या पुंज दान तै भए अगंज, चलिराउ आगै हरि धरा दांन लेह रे ।