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जिनप ग्रन्थावली कहै जिनहरख न ढहत लगैगी बार,
कागद की गुडी कोलु रहै जहां पानी है ।।२।। अथ काया स्वरूप कथन सवइया ३१ काहे काया रूप देखि गरव करै है मूढ, छिन मै विगर जाय ठाम है असार की ।
पट्खंड जाकी आंण भांण सोम बन तेज, -
चक्रवर्ति की समृद्धि भी अपार की । चात इंद्रलोक मांहि असो कहू रूप नाहि, देय तहां आए जात करण दीदार की ।।
___ कहै जिनहरख विगर गई पलक मै,
यैसी खुब काया होती सनत कुमार की ॥३॥ पुनः काया स्वरूप कथन सवइया ३१ काया है असुची ठाम रेत की मढी है ताम, चांम सौ गही है भया बंधी नसां जाल सू ।
ठोर ठोर लोहं कुंड कसन के बधे झुड
___ हाडन सु भरी भरी बहुत जंजाल मूं। __ श्लेखमा को गेह मलमूत तूं बंधी है देह, निकसे असुभ नवद्वार परनाल स् ।
असी देह याही के सनेह तूं तो मयो अंध, कहै जिनहरख पचै है दुख झाल तूं ॥४॥