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उपदेश छत्तीस
अथ लोभ स्वरूप कथन सवइया ३१
माया जोरि कुंजीव तलफत है अतीव, देस तजि जाय परदेस परखंड जूं ।
जंगली जिहाज बैंठौ जल निधि मांहि पैसे, लोभ को सरोय गा है गिर पर चंम जू ।
भूख सह प्यास सहै दुर्जन की त्रास सहई, तात मात भ्रात छोरि हाॅ खंड खंड जू ।
सो लोभी लोभ के लिये हैं दुख सह कोरि, कहैं जिनहरख न जांगें है त्रिभड जू ||५||
अथ क्रोध कथन सवइया ३१
को छोरि मेरे प्राणी कुगति की सहिनाणी, इहे वीतराग वांणी सुख सुणि लीजियें ।
क्रोध तैं सनेह छूटै मै प्रेम तै हू, क्रोध तें सुजस नांहि प्रथम गिणीजीयै ।
खंदक सरीस को क्रोधन तै देस दह्यो, तप सब हारि गयो वेद में सुगीजीयें ।
द्वारिका को कीनो दाह दीपायन क्रोध ठाह, सो क्रोध है जिनहरख न कीजिये ॥ ६ ॥