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जिनहर्ष - प्रन्थावली
ठग सो जो परमन ठगै पर उपजावै रीझ । जसा करें वश जगत को साचा ठग सोईज ||२६| करे कहा जसराज कहै जो अपने मन साच । far में परगट होयगा ज्यु प्रगटाये काच ॥३०॥ ढा कोट अज्ञान का गोला ज्ञान लगाय ।
मोहराय कु मार ले जसा लगे सब पाय || ३१ ॥ नदी नखी नारी तथा नागणि खग जसराज ।
नाई नरपति निगुण नर आठे करें अकाज ||३२|| वारे ज्यु नर कु जसा भवसागर में पोत ।
त्युं तारे गुरु भव निधि करै ज्ञान उद्योत ||३३|| थोम लोभ नहिं जीव कु लाख कोड़ धन होत ।
समता ज्यु या जसा सुख सदा मन पोत ||३४|| दक्षिण उत्तर च्यार दिश जसा भमै धन काज । प्रापति विना न पाइयें करौ कोड़ि का ||३५||
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धन पाया खाया नहीं दीया भी कुछ नांहि । सोवां गुल होवें जसा ढुंढत है धन मांहि ||३६|| निगुण पूत नारी निलज कूप हि खारौ नीर । निपर मित्र जसराज कहै चारु दहै शरीर ||३७||
पर उपगारी जगत में अलप पुरुष जसराज | शीतल वचन दया मया जाके मुख पर लाज ||३८||
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