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जिनहर्ष-ग्रन्थावली
लंक महागढ बंक त्रिकूट समुद्र की खाय वनाय लही हे , रावण राज की जोर आवास विणस्सण काल कुबुद्धि भई हे। सीत हरी हरी फोज करी हण्यो रावण कू कहा बुद्धि गई है, राज गरीब नवाज बडे जसराज विभीषण लंक दई हें ॥५५॥ क्षोर सीस मुंडावत केई लंव जटा सीर केई रहावे, लू चन हाथ सू केई करे केई अंग पंचागिनी माहें धूखावें । राख यूं केइ लपेट रहे केई मोन दिगंबर केई कहावें, कष्ट करें जसराज बहुत्त में ज्ञान विना सीव पंथ न पावें ॥५६।। सेवत सर अठतिस में मास फागुण में
बहुल सातिम दिनवार गुरु पाए हे, वाचक शांतिहरख ताहू के प्रथम शीख
भलके अक्षर परि कविच बनाए हैं । अवसर के विचार वैठि के सभा मझार,
____ कह्यो नर नारी के मन में सु आए हैं । कहे जिनहर्ष प्रताप प्रभुजी के भई,
पूरन बावन्नि गुणीयन क्रीझाए हैं ॥५७।। ॥ इति श्री मातृका-वावनी ।।
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