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मातृका - बावनी
aircut नारि लह्यो सपनो मन मांहि जाणई सेरे पूत भयो हैं, गावत मंगल गीत महा धुनि नांम भलो विप्र देखि दयो हैं । यस फलि डर की गुरु कि बहु पूज करी सुख मान लियो हैं, युं करतां जसराज जगी सुख डार निसास उलास गयो हैं ५० शंकर तो वृख वैठि निरंतर भीख पिया संगी मांगि जीमें हैं, ब्रह्म करें हैं कुलाल को कांम दिनेसर तो दिन राति ममें हैं । विष्णु जगत के नाथ सू तो अवतार में संकट पीर खरें हैं, कर्म थें कोई न छूटो जसा बलवंत करम्म न कोई क्रमें हैं ।। ५१ ।। खूचि रह्यो कला कीच में नीच तुमी चतो तेरे समीप रहें हैं, ना घर में थिर वास भुयंगम सो तो अचानक मृत्यु लहें हैं । सोचि जसा तेरो या घटे सरिता जल ज्यों दिन राति वहें हैं, धर्म सुधाफल छोरी के काहें कू सुख्य किपाक संराचि रहें हैं ५२
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मीख भली गुरु की मानु ईप समान गुमान निवार गहें जो, दीपक ग्यान हीयें प्रगढ़ें अग्यान पतंग को अंग दहें जो । सम्यग धर्म धर्म लखे न चखें जु मिथ्यात न घात लहे जो, सिद्ध को राज लहें जसराज सदा गुर कि सिर आंख वहें जो । ५३ । हंस रू काग रहे तरु ऊपर दोड़ परस्परें चित्त मिलायो, कोई समें एक भूपति खेलत छांह निहार जसा तहां आयो । काग कुया तर्फे विट भई नृप तांग कांग से वांण चलायो, काग गयो रह्यो हंस सुवंश को नीच की संगत मृत जं पायो ५४