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जिनहर्प-ग्रन्थावली लीयो नहि जस बास जगत्त में तो ती जसा कहा पाइ कीयउ हे, रोणस रूप मयों मृग मावज पेट भयउं भूई भार दिउं है । लाकन मई पति जाकि नहि अक्रियारथ ताहु को जनम्म जीयो हैं, मात को जोवन यात कियो कछू जातन संबल साथि लियो हें ।१५। एकन कू गजराज सुखासण एक कूपाउ न पानहि पाई, एकण कूचित्तसाल महल्ल रू एकन कू मढ़ियां जु बणाई । एजण घरिणी तरुणी सुख एकन कूपरणी दुखदाई, ए सुखी दुखीया एक दीसत सर्व जसा निज कृत्य कमाई ॥१६॥ ऐ ऐ मोह नरिंद कि राजधानि जग तीन को लोक हरायो, मोह थे सरि सज्यंभव पूत के कारण नैन में नीर वहायो । मोह थे अंध भइ मरुदेवी जगौतम केवल ग्यान न पायो, मह जसा छल्यो आद्रकुमार कूस्त के तांतण मांहि बंधायो ।१७। नोट गहि नहि कोट की चोट सहि पै सुभट्ट अहट्टत नाहिं, धान सनमुख लेतन देत हे पीठ कनें जस लेत सांहि । त्रु हणे न गणे बल नाहु को प्रांण की हाणि गण न कहांहि, हर को पंथ रु एंथ निग्रंथ को दोन बरावर हे जग माहि ॥१८॥ प्रोग्य सो करिये जसराज बरा मृत्यु रोग वियोग समावं,
जन मो करियं मयमत्त सदा रहिह कह और न मा । मा मरणो करिई डरिये नहि क्र र कृतांत न आवण पावें, सत सो करिये विग्चें नहि रयण अमुलिक गांठि बंधावें ॥१६॥