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________________ ८४ सातृका-बावनी उद्यम थे रिद्धि वृद्धि नवे निद्धि उद्यम थे सब काज सरे हैं, भोजन मात सजाई मिलें सव उद्यम थे दुख दूरि टरें हैं। उद्यम थे सुख संपति भोग संयोग मिलें धरि केलि करे हे, उद्यमवंत जसा नर सोई निरुद्यम जाणि पर विचरे हे ॥१०॥ ऊग्यो दिवाकर दारि गमे निसि उग्यो निसाकर घाम समे हैं, पावस होत सु वृष्टि घना धन की ततकाल दुकाल में हैं । नीर त्रिखातुर पीर हरें फुनि लुंखण कू भैया अन्न दमें हैं, सीत बीतीत अगन ते होत त्यु पुन्य जसा सब पाप गमें हें ॥११॥ रिद्धि लही अरू दान दीउ नहि तउ कहा रिद्धि लही न लही है, गालि सही अरू काल सह्यड नही तउ कहां गालि सही न सही है। देह दही अरू नेह दह्यो नही तो कहा देह दही न दही हैं, प्रीत रही अरू प्रेम रह्यो नही तो कहा प्रीत रही न रही है ।१२॥ रीस क् मारि विपाक विचारि के रिस महानल देह ॥ वालें, रोस से पादर मान लहि नहि रीस पुरातन प्रीत प्रजालें। । रीस थे मात पिता प्रिय वल्लभ सज्जन सयण सम्बन्ध न पालें, गैस जमा सव लोक कू गालें जोरावर सो जोउ रिस कूचालें१३ लिप्यि लखि विधिना सिर में तन में कछु टालि जसा न टरें हैं, आरति संद्र धरे मन में यूहि देस विदेम वृथा विचरें है। उद्यम माहम बुद्धि पराक्रम कोटक दाय उपाय करें हैं, तो लख्यो सुख दुक्ख फला फल ते तो जहां तहां पान परे हे१४
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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