SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मातृका-बावनी अन्न खरो धन हे जसराज दुरभख अन्न जगत आधारें, अन्न करें उपवास तप जप दिन वुभुक्षत भूख निवारें । कीरति अन्न करें त्रय लोक में अन्न गइ अखियात वधार, जहां परग्घल अंन्न तहां हैं अन्न चतुर्गति दुक्खविडारें ॥२०॥ अक्क कटुक्क जगत्त कहावत ताके कह्यौं गुण पार न आवें, जो कछू पीर सरीर में होत ताहु परि दिनौ दरद्द गमावें । अंतरसाल रहें नहि जाहु थें सुख संजोग मिलें तनु पात्रे, सज्जन ऐसे जसा करिये गुण उगुण उपारे जोर दिखावें ॥२१॥ कूकर पूंछ हलायत पाउन वीची परें तोहि टक न पावें, देखि मतंगज मान न छारत काहु प्रवाहत चित्त हरावें । तोउ न को नव निधि मिलें बहु आदर सूजतना रहा, धीर पणो जन्मराज भलो विण धीरज सो वपरो जू कहा ॥२२॥ खार तजो मन को अरे मानव खारत देह उधार न होई, शांति भजो मन भ्रांत तजो कछू होई गजो तो करो वस्तु लोई । जीव की बात की बात निवारि के आप समान गणो सब कोई, राग न द्वप धरो मन में जस राज सुगति जो चाहिई जोई ।२३। गाज सरद्दकि रद्द मिरद्द की भीति को थिरता न रहाई, औस को तेह रहें कालुथल में जल बारि कित्ति ठिहराई । तेज कितोक झिगे खजुश्रा को नदि गीर कि जु मूतो बहि जाई, देखन कोडह को जसराज में नीको नेह न ह सुखदाई ॥२४॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy