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________________ जिनहर्प-प्रन्यायला सुहणा माहे सांभरई. साहित्र बार हजार । पिणि परतखि दीसई नहीं. पोतई पाप अपारो रे १५१ प्री. जिम मन चालइ माहरउ. तिम जउ चरण चलंत । इबड़ी ढील न तउ करूं, ततखिण अाइ मिलंतो रे ।६। ग्री. । जाणेज्यो मेरी चंदणा. अह ऊगमतह सूर । कह ई जिनहरख सहेजसु, मुझ नई राखि हजूरो रे।७ श्री.! नेमप्रभु-जिन-स्तवन ढाल-वडरागी थयउ. एहनो] माहरा मन नी बातड़ी रे, तुं जाणइ जगदीश । अंतरजामी माहरा रे, तिणि तुझ नाम्शीशो रे ॥१॥ सेवक बीनवई, मुझ भव सायर तारो रे । शरण ई ताहरइ. कीजई प्रभु उपगारो रे ।।२।। से.॥ तारक तउ तारइ जिको रे. अवर न तारक होई । तारक विरुद कहाविउ रे. तउ मुझसाम्हो जोयो रे ।३। से.। तई तार्या तारइ तुही रे, तू ही तारण हार । माहरी वेला कांइ करउ रे, इतरउ सोच विचारउ रे ।४। निगुण उ तउ पिण ताहरउ रे, हूं सेवक महाराज । छोरू होई उछांहला रे. मावीतां नइ लाजो रे ।। से.।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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