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जिनहर्ष-ग्रन्थावली परिग्रह राखड़ नहीं पासइ, चउनिह संघ तउ किम वासइ हो। किणही न कांई न दीवउ तउ,पिण त्रिभुवन जस लीधउ हो३ धुरि क्रोध इग्यागारा सुणिया,
तउ आठ करम किम हणीया हो । अभिमान नहीं तुझ महे, तउ बड़ी प्रभुता काहे हो ।सु.४। माया केलवि नवि जाणा, सुरनर तउ किम वसि आणइ हो । निरलोभी तुझनइ कहियइ,गुण संग्रह तउ किम वहियइ हो५ तांहरा अवगुणपिणि मीठा मई तउ परतिख नयणे दीठा हो। ईसर जे करै सु छाजइ, वीजा करेइ तउ ढीढी वाजइ हो ॥६॥ मुझ सरिखउ तारि मह वासी,साचउ विरुद तारक तउ थासी हो जिनहर्ष हिवइ वणि आई, चन्द्रबाहु कोध सखाइ हो ।सु.७/
भुजङ्ग-जिन-स्तवन
[ ढाल-रहउ रहउ बालहा एहनी ] स्वामि भुजंगम वीनति, एक सुणउ महाराज ||जिनजी॥ भगत वच्छल मिलि भावसु, राज गरीव निवाज ॥जि.१॥ गुण ताहरा जिम सांभलु, रोमांचित हुवइ देह । जि. ।। दीठा पाखड हो प्रीतडी, लागी अचिरज एह ॥जि.२सा ।। जाणु मिलियइ हो जाइ नइ, पूछीजइ हित वात जि.॥ पूरीजइ मन खांतड़ी, सेवीजइ दिन रात ।। जि० ३ सा.॥ १ मुझ माहे क्रोध न सुणिया।